अपनी बात | अधिवक्ता चुनाव
मै आश्चर्य चकित हूँ कि वकीलों के पास संगठनात्मक चुनावों में व्यय करने के लिए इतना अधिक धन कहां से आता है। पूरे के पूरे न्यायालय परिसर वकीलों के बड़े चित्रों वाले रंग -बिरंगे पोस्टरों से ढक जाते है। दीवाले, दरवाजे कुरूप हो जाते है। कहां से यह धन आता है जिससे बड़ी संख्या में नये सदस्य केवल चुनाव के अवसर पर बनाए जाते है, हालाकि मार्डल बाईलाज ने काफी नियंत्रित किया है। पुराने सदस्यों का बकाया सदस्यता शुल्क अदा हो जाता है।पीने और खाने वालों की शामें तो छोड दे सुबह व दोपहर भी गुलजार हो जाती है। जो वकील कानून की किताबें नही खरीद सकता है चुनाव के लिए कैसे और किस प्रकार रूपयों का जुगाड़ लगाता है, क्यों और किस लिए ? इन प्रश्नों के उत्तर किसी को खोजने नहीं है। कचहरी की दीवालो पर यह स्पष्ट रूप से लिखें हुए है । आज के वकीलों का अधोपतन निश्चित ही अधिवक्ता समाज के लिए ही नही, सम्पूर्ण न्यायिक व्यवस्था खतरे की घंटी है। कचहरी में प्रवेश लेने वाला नवागन्तुक अधिवक्ता संगठनों के चुनाव में सफलता को बधाईयों के बहाने अपने नामों के प्रचार की यह होड़ केवल कचहरी तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि शहर की मुख्य सड़कों को छोड़कर दुर देहातों में वकीलों के नामों के बैनर बधाई देते नजर आते हैं । क्या अब वकीलों को अपनी योग्यता और प्रतिभा पर भरोसा नहीं रह गया है, जो प्रचार व विज्ञापन के बनावटी साधनों का सहारा ले रहे हैं। अधिवक्ता संघ तो शायद कोई कदम इस पतन को रोकने का उठाने का साहस नहीं रखते लेकिन विचारवान अधिवक्ताओं को निश्चित ही छोटे-छोटे अधिवक्ता मंचों के माध्यम से इस प्रकार के कदमों की भर्त्सना अवश्य करनी चाहिए। अधिवक्ता और प्रचार के द्वारा अपना माल बेचने वाले दुकानदार के बीच का अन्तर समाप्त होने से बचाना जरूरी है। अधिवक्ता की अपनी प्रतिष्ठा धन या प्रचार से जुड़ी नहीं है । एक निर्धन, ईमानदार अधिवक्ता की प्रतिष्ठा धनवान मगर घूस दिलाने वाले या प्रचार आधारित अधिवक्ता से कहीं ज्यादा आज भी है और भविष्य में भी रहेगी ।
----- विधिनय
