शिवमहिम्नस्तोत्रम्
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श्रीपुष्पदन्तविरचितं शिवमहिम्नस्तोत्रं समाप्तम् ।
' हे हरे ! ( सभी दुखों के हरने वाले )आपकी महिमा केे अन्त को जाननेवाले मुझ अज्ञानी से की गई स्तुति यदि आपके महिमा के अनुकूल न हो, तो कोई आश्चर्य की बात नही है, क्योंकि ब्रह्मा आदि भी आपकी महिमा के अन्त को नहीं जानते हैं । अतः उनकी स्तुति भी आपके योग्य नहीं है । " स् वाग् यथा तस्य गुणान् गृणते " के अनुसार यथामति मेरी स्तुति उचित ही है, क्योंकि - " नमः पतन्यात्मसमं पत्रत्रिणः " इस न्याय से मेरी स्तुति आरम्भ करना क्षम्य हो ।। 1 ।। '
' हे ब्रह्मन् ! जब कि आपने मधु के सदृश और अमृत के सदृश जीवनदायिनी वेदरूपी वाणी को प्रकाशित किया है, तब ब्रह्मदि से की गई स्तुति आपको कैसे प्रसन्न कर सकती है? हे त्रिपुरमथन! जब ब्रह्मदि भी आपकी स्तुति - गान करने में समर्थ नहीं हैं, तब मुझ तुच्छ की क्या सामर्थ्य है। मैं तो केवल आपके गुणगान से आपकी वाणी को पवित्र करने की इच्छा करता हूं ।।3।।
हे वरद! (वर देनवाले ) आपके ऐसे ऐश्वर्य का जो संसार की सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय करनेवाला है, तीनों वेदों से गाया हुआ है, तीनों गुणों ( सत्, रम, तम ) से परे है,तीनों शक्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश ) में व्याप्त है, कुछ नास्तिक अनुचित निन्दा करते हैं, इससे उन्हीं का अधःपतन होता है न कि आपके यश का ।।4।।
"अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत्" के अनुसार कल्पना से बाहर, अपनी अलौकिक माया से सृष्टि करनेवाले आपके विषय में नास्तिकों का यह ( वह ब्रह्मा सृष्टि करता है, किन्तु उसकी इच्छा, शरीर सहकारी कारण आधार और समवायि कारण क्या है ? ) कुतर्क जगत् के कतिपय मन्त मति वालों को भ्रांति के लिए वाचक करता है ॥ 5 ॥
हे अमरवर! ( देवश्रेष्ठ ! ) यह साबयव लोक अवश्य ही जन्म है तथा इसका कर्ता भी कोई-न-कोई है, परन्तु वह कर्ता आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता, क्योंकि इस विचित्र संसार की विचित्र रचना की सामग्री ही दूसरे के पास असम्भव है, इसलिए अज्ञानी लोगों को ही आपके विषय में संदेह है ॥ 6 ॥
हे अमरवर! वेदत्रयी, सांख्य, योग, शैव मत और वैष्णव मत ऐसे भिन्न-भिन्न मतों में कोई वैष्णव मत और कोई शैव मत अच्छा कहते हैं, रूचि की विचित्रता से टेढे-सीधे मार्ग में प्रवृत्त हुए मनुष्यों को अन्त में एक आप ही साक्षात् या परम्परया प्राप्त होते हो, जैसे नदियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बहती हुई साक्षात् या परम्परा से समुद्र में ही मिलती है ॥ 7 ॥
हे वरद! महोक्ष ( बैल ), खटिया का पाया , परशु, गजचर्म, भस्म, सर्प, कपाल इत्यादि आपकी धारण सामग्रियां हैं, परंतु उन ऋद्धियों को जो आपकी कृपा से प्राप्त देवता लोग भोगते हैं, आप क्यों नहीं भोगते? स्वात्माराम ( आत्मज्ञानी )को विषय (रूप-रसादि )रूपी मृगतृष्णा नहीं भ्रमा सकती हैं ॥ 8 ॥
हे पुरमथन! सांख्य मतानुयायी " नह्रासत उत्पतिः सम्भवति " के अनुसार जगत् का ध्रुव ( नित्य ), बुद्धिमतानुयायी अध्रुव ( क्षणिक ), तार्किक जन नित्य ( आकाश आदि पन्च और पृथिव्यादि परमाणु और अनित्य कार्यद्रव्य ) दोनों मानते हैं । इन मतान्तरों से विस्मित मैं भी आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं होता, क्योंकि वाचालता लज्जा को स्थान नहीं देती ॥9॥
हे गिरिश! (गिरि में शयन करने वाले ), आपकी तेजपुंज विभूति को ढूंढने के लिए ब्रह्मा आकाश तक और विष्णु पाताल तक जाकर भी उसे पाने में असमर्थ रहे, तत्पश्चात् उनकी कायिक, मानसिक और वाचिक सेवा से प्रसन्न होकर आप स्वयं प्रकट हुए, इससे यह निश्चय है कि आपकी सेवा से ही सब सुलभ है ॥ 10 ॥
हे त्रिपुरहर! मस्तकरूपी कमल की माला को जिस रावण ने आपके कमलवत् चरणों में अर्पण करके त्रिभुवन को निष्कण्टक बनाया था तथा युध्द के लिए सर्वदा उत्सुक रहनेवाली भुजाओं को पाया था, वह आपकी अविरल भक्ति का ही परिणाम था ॥11॥
रावण ने उन्हीं भुजाओं से जिन्होंने आपकी सेवा से बल प्राप्त किया था, आपके घर कैलाश को उखाड़ने के लिए हठात् प्रयोग करते ही आपके अंगूठे के अग्र भाग के संकेत मात्र से पाताल में गिरा, निश्चय ही खल उपकार को भूल जाते हैं ।।12।।
हे वरद! बाणासुर ने आपके नमस्कार मात्र से इन्द्र की सम्पत्ति को नीचा दिखाने वाली संपत्ति प्राप्त किया था और त्रिभुवन को अपना परिजन बना लिया था, यह आश्चर्य की बात नही है, क्योंकि आपके चरणों में नमस्कार करना किस उन्नति का कारण नहीं होता है ।।13।।

हे त्रिनयन! सिन्धु - विमन्थन से उत्पन्न कालकूट से असमय में ब्रह्माण्ड के नाश से डरे हुए सुर व असुरों पर कृपा करके एवं संसार को बचाने की इच्छा से उस (कालकूट)को पान करने से आपके कण्ठ की कालिमा भी शोभा देती है ।ठीक ही है, जगत् के उपकार की कामनावाले दूषण भूषण समझे जाते हैं।।14।।
जो विजयी कामदेव अपने बाणों द्वारा जगत् के देव, मनुष्य और राक्षसों को जीतने में सर्वथा समर्थ रहा, वही कामदेव अन्य देवों के समान आपको भी समझा, जिससे वह स्मरण मात्र के लिए ही रह गया ( दग्ध हो गया ), जितेन्द्रियों का अनादर करना अहितकारक ही होता है।।15।।
हे ईश! आप जगत् की रक्षा के लिए राक्षसों को मोहित करके नाश के लिए नृत्य करते हो, तब भी संसार का आपके ताण्डव से दुःख दूर होता है, क्योंकि आपके चरणों के आघात से पृथ्वी धॅसने लगती है, विशाल बाहुओं के संघर्ष से नक्षत्र आकाश पीडित हो जाता है तथा आपकी चंचल जटाओं से ताडित हुआ स्वर्ग लोक भी कम्पायमान हो जाता है।ठीक ही है, उपकार भी किसी के लिए अहितकारक हो जाता है।।16।।
हे ईश! तारागणों की कान्ति से अत्यंत शोभायमान आकाश में व्याप्त तथा भूलोक को चारों ओर से घेरकर जम्मू द्वीप बनानेवाला गंगा का जल-प्रवाह आपके जटा-कपाल में बूंद से भी लघु देखा जाता है।इतने से ही आपके दिव्य तथा श्रेष्ठ शरीर की कल्पना की जा सकती है।।17।।
हे ईश! तृण के समान त्रिपुर को जलाने के लिए पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, हिमालय को धनुष, सुर्य-चन्द्र को रथ का चक्र तथा विष्णु को विषधर बाण बनाना आपका आडम्बर मात्र है । विचित्र वस्तुओं से क्रीड़ा करते हुए समर्थों की बुद्धि स्वतन्त्र होती है ।। 18 ।।
हे त्रिपुरहर! विष्णु आपके चरणों में प्रतिदिन सहस्त्र कमलों का उपहार देते थे।एक दिन एक की कमी होने के कारण उन्होंने अपने एक कमलवत् नेत्र को निकालकर पूरा किया।यह भक्ति की परम सीमा चक्र के रूप में आज भी संसार की रक्षा किया करती है।।19।।
हे त्रिपुरहर! आप ही को यज्ञ के फल के दाता समझ कर, वेद में दृढ विश्वास कर मनुष्य कर्मों का आरम्भ करते हैं,क्रिया रूप यज्ञ के समाप्त होने पर आप ही फल देनेवाले रहते हैं।आपकी आराधना के बिना नष्ट कर्म फलदायक नहीं होता ।।20।।
हे शरणद! कर्मकुशल यज्ञपति, दक्ष के यज्ञ के ॠषिगण, ॠत्विज, देवता सदस्य थे। फिर भी यज्ञ के फल देने वाले आपकी अप्रसंन्ता से वह ध्वंस हो गया। निश्चय है, आपमें श्रद्धारहित किया गया यज्ञ नाश के लिए ही होता है।।21।।
हे नाथ! काल से प्रेरित मृगरूप धारण किये ब्रह्मा के भय से मृगीरूपी धारण करने वाली आपनी कन्या से आसक्त देख, आपका उनके पीछे छोड़ा गया बाण आर्द्रा आज भी नक्षत्र के रूप में मृगशिरा ( ब्रह्मा ) के पीछे वर्तमान है।।22।।
हे यम - नियमवाले त्रिपुरहर! आपकी कृपा से आपका अर्धस्थान प्राप्त करने वाली, अपने सौंदर्यरूपी धनुष को धारण करने वाले कामदेव को जरा हुआ देखकर भी यदि पार्वती आपको अपने अधीन समझें तो ठीक ही है, क्योंकि युवतियाँ ज्ञानहीन होती है।।23।।

हे स्मरहर! आपका श्मशान में क्रीड़ा करना, भूत -प्रेत-पिशाचादि को साथ रखना, शरीर में चिता के भस्म का लेपन करना तथा नरमुण्डो की माला पहिनना आदि बीभत्स कर्मों से यधपि आपका चरित्र अमंगल है तथापि स्मरण करनेवालों को हे वरद! आप मंगलरूप हैं।।24।।
हे वरद ! जिस प्रकार अमृतमय सरोवर में अवगाहन (स्नान करने ) से प्राणीमात्र तापत्रय से मुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों से पृथक् करके मन को स्थिर कर, विधिपूर्वक प्राणायाम से, पुलकित तथा आनन्दाश्रु से युक्त योगीजन ज्ञानदृष्टि से जिसे देखकर परमानन्द का अनुभव करते हैं, वह आप ही हैं।।25 ।।
हे वरद! आपके विषय में ज्ञानीजनों की यह धारणा है कि, " क्षिति हुत वह क्षेत्रज्ञाम्भः प्रभञ्जन चन्द्रमस्तपनवियदित्यष्टो मूर्तिर्नमो भवविभ्रते । " इस श्रुति के अनुसार सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी और आत्मा भी आप ही हैं, किन्तु मेरे विचार से ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ आप न हों।।26।।
हे शरणद! व्यस्त (अ, उ, म ), 'ॐ' पद, शक्ति द्वारा तीन वेद ('ऋग', 'यजुः' और 'साम' ), तीन वृत्ति (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति ), त्रिभुवन ( भूर्भुवः स्वः ) तथा तीनों देव ( ब्रह्मा, विष्णु, महेश ), इन प्रपंच्चों से व्यस्त आपका बोधक है और समस्त 'ॐ ' पद ,समुदाय शक्ति से सर्व विकार रहित अवस्थात्रय से, विलक्षण अखण्ड, चैतन्य आपको सूक्ष्म ध्वनि से कहता है।।27।।
हे देव! भव, शर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान यह जो आपके नाम का अष्टक है, इस प्रत्येक नाम में वेद और देवतागण ( ब्रह्मा ) आदि विहार करते हैं, इसलिए ऐसे प्रियधाम ( आश्रयभूत ) आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूं।।28।।
हे प्रियदेव! (निर्जन वन -विहरणशील ), नेदिष्ठ (अत्यन्त समीप), दविष्ठ (अत्यन्त दूर), क्षोदिष्ठ (अति सूक्ष्म), महिष्ठ (महान्), वर्षिष्ठ (अत्यन्त वृद्ध ), यविष्ठ (अति युवा ), सर्वस्वरूप और अनिर्वचनीय आपको नमस्कार है।।29।।
हे शिवजी! जगत् की उत्पत्ति के लिए परम रजोगुण धारण किये भव ( ब्रह्मा ) रूप आपको बार-बार नमस्कार है और उस जगत् के संहार करने में तमोगुण को धारण करनेवाले हर (रूद्र ), आपके लिए पुनः-पुनः नमस्कार है, जगत् के सुख के लिए सत्व गुण को धारण करनेवाले मृण (विष्णु ), आपको बार-बार नमस्कार है।तीनों गुणों (सत्व, रज, तम )से परे जो अनिर्वचनीय पद से विशिष्ट आपको बार-बार नमस्कार है।।30।।
हे वरद! कहाॅ तो राग-द्वेष आदि से कलुषित तथा तुच्छ मेरा मन, कहाॅ आपकी अपरिचित विभूति, तिसपर भी आपकी भक्ति ने मुझे निर्भय बनाकर इस वाकरूपी पुष्पांजलि को आपके चरणकमलों में समर्पण करने के लिए बाध्य किया है।।31।।
हे ईश! असित अर्थात् काले पर्वत के समान कज्जल ( स्याही ) समुद्र - पात्र में हो, सुरवर ( कल्पवृक्ष ) के शाखा की उत्तम लेखनी हो, और पृथ्वी कागज हो, उन साधनों को लेकर स्वयं शारदा सर्वदा ही लिखती रहें तथापि आपके गुणों का पार नहीं पा सकती, तो मैं कौन हूँ।।32।।
असुर, सुर और मुनियों से पूजित तथा विख्यात महिमा वाले ऐसे ईश्वर चन्द्रमौली के इस स्तोत्र को अलघु वृत्त अर्थात् बड़े ( शिखरिणी ) वृत्त में सकल, गुण श्रेष्ठ पुष्पदन्त नामक गन्धर्व ने बनाया।।33।।
शुद्ध चित्त होकर अनवघ महादेवजी के स्तोत्र को जो पुरूष प्रतिदिन परम भक्ति से पढता है, वह इस लोक में धन - धान्य आयुयुक्त पुत्रवान् और कीर्तिवान् होता है और अन्त में शिवलोक में शिवस्वरूप हो जाता है।।34।।
महादेवजी से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, अघोर मन्त्र से श्रेष्ठ कोई मंत्र नहीं और गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्व ( पदार्थ )नहीं ।।35।।
दीक्षा, दान, तप, तीर्थ तथा ज्ञान और योगादि क्रियाए इस महिम्नस्तोत्र के पाठ की सोलहवीं कला को नहीं प्राप्त कर सकती हैं।।36।।
पुष्पदन्त नामके सभी गंधर्वों के राजा, भाल में चन्द्रमा को धारण करनेवाले, देवों के देव महादेव जी के दास थे, वे सुरगुरू महादेवजी के क्रोध से अपनी महिमा से भ्रष्ट हुए, तब शिव के प्रसन्नतार्थ इस परम दिव्य ( महिम्न ) स्तोत्र को बनाये।।37।।

यह पुष्पदन्त का बनाया हुआ अमोघ स्तोत्र कैसा है कि - सुरवर मुनियों से पूज्य और स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण है।इसे जो मनुष्य अनन्य चित्त हाथ जोड़कर पढता है , वह किन्नरों से स्तुति किया हुआ शिवजी के समीप जाता है।।38।।
सावधान होकर श्री पुष्पदन्त के मुख से निकले हुए पापहारी तथा महादेवजी के प्रिय इस स्तोत्र को कण्ठ कर पाठ करने से प्राणीमात्र के स्वामी श्रीमहादेवीजी प्रसन्न होते हैं।।39।।

हे त्रिनयन! सिन्धु - विमन्थन से उत्पन्न कालकूट से असमय में ब्रह्माण्ड के नाश से डरे हुए सुर व असुरों पर कृपा करके एवं संसार को बचाने की इच्छा से उस (कालकूट)को पान करने से आपके कण्ठ की कालिमा भी शोभा देती है ।ठीक ही है, जगत् के उपकार की कामनावाले दूषण भूषण समझे जाते हैं।।14।।
हे स्मरहर! आपका श्मशान में क्रीड़ा करना, भूत -प्रेत-पिशाचादि को साथ रखना, शरीर में चिता के भस्म का लेपन करना तथा नरमुण्डो की माला पहिनना आदि बीभत्स कर्मों से यधपि आपका चरित्र अमंगल है तथापि स्मरण करनेवालों को हे वरद! आप मंगलरूप हैं।।24।।
दीक्षा, दान, तप, तीर्थ तथा ज्ञान और योगादि क्रियाए इस महिम्नस्तोत्र के पाठ की सोलहवीं कला को नहीं प्राप्त कर सकती हैं।।36।।
यह पुष्पदन्त का बनाया हुआ अमोघ स्तोत्र कैसा है कि - सुरवर मुनियों से पूज्य और स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण है।इसे जो मनुष्य अनन्य चित्त हाथ जोड़कर पढता है , वह किन्नरों से स्तुति किया हुआ शिवजी के समीप जाता है।।38।।
अनुपम और मन को हरनेवाला ईश्वर वर्णनात्मक पवित्र स्तोत्र पुष्पदन्त गन्धर्व का कहा हुआ समाप्त हुआ।।40।।
प्रातःकाल या दोपहर या सांयकाल में या तीनों काल में जो आपकी महिमा का गान करेगा, वह सब पापों से छूटकर आपके लोक में सुखपूर्वक निवास करेगा।।42।।
इस प्रकार इस वाडःमयी पूजा को मैं शंकरजी के चरणों में अर्पण करता हूं, जिससे श्रीमहादेवीजी मुझ पर प्रसन्न रहें।।43।।श्रीपुष्पदन्तविरचितं शिवमहिम्नस्तोत्रं समाप्तम् ।
